देवी महालक्ष्मी यश, धन एवं समृद्धि की देवी हैं। इसलिए हर कोई धनी और सुखी-समृद्ध जीवन की लालसा और कामना रखने वाले भक्तों द्वारा लगातार सोलह दिनों तक उनकी पूजा की जाती है।
Mahalaxmi Vrat Katha Hindi
एक समय धर्मराज युधिष्टिर भगवन श्री कृष्ण से बोले- “हे पुरुषोत्तम ! खोये हुए मान सम्मान की पुनः प्राप्ति कराने वाला और पुत्र आयु सरवैश्वर्य तथा मनवांछित फल को देने वाला कोई वृतांत मुझसे कहिये ।
” श्री कृष्णजी ने युधिष्टिर से कहा-” हे राजन ! सतयुग के प्रारंभ में जब दैत्यराज वृत्तासुर ने देवताओं के स्वर्ग लोक में प्रवेश किया था, तब यही प्रश्न इंद्र ने नारद मुनि से किया था । इंद्र के पूछने पर नारद ने तब इसप्रकार का वर्णन किया ।
पूर्वकाल में पुरन्दरपुर नाम का एक अत्यंत रमणीय नगर था । वह नगर अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों से युक्त होने के कारण संसार भर में प्रसिद्ध था । उसमे मंगलसेन नाम का राजा राज करता था । उसकी चिल्लदेवी और चोलदेवी नामक रूपवती रानियाँ थी ।
एक समय राजा मंगलसेन अपनी रानी चोलदेवी के साथ महल के शिखर पर बैठे थे । वहां से उनकी दृष्टि समुद्र के जल से घिरे स्थान पर पड़ी । उस जगह को देखकर राजा अति प्रसन्न हुआ और अपनी रानी से बोला-“हे चंचलाक्षी ! मै उस स्थान पर तुम्हारे लिए एक परम मनोहर उद्ध्यान बनवाऊंगा ।
” राजा के ऐसे वाक्य को सुनकर रानी ने कहा – “हे कान्त ! आपकी जैसी इच्छा हो आप वैसा कीजिये” । राजा ने अपने विचार के अनुसार उसी स्थान पर एक सुंदर बगीचा बनवा दिया । वह बगीचा थोड़े दिनों में अनेक वृक्ष लता फूलों और पक्षीगन से संपन्न हो गया ।
एक समय उस उद्ध्यान में मेघ तुल्य काला और वर्ण चंचल नेत्रों से युक्त शुकर घुस आया । उसने आकर वृक्षों को तोड़ डाला और उद्ध्यान को चौपट कर डाला । यही नहीं उस शुकर ने बगीचे के कई रखवालों को मार डाला । तब उद्ध्यान के रक्षक उससे भयभीत होकर राजा के पास गए और सब हाल कह सुनाया । अपने परम रम्य उद्ध्यान के उजड़ने की बात सुनकर राजा के नेत्र क्रोध से लाल हो गए ।
राजा ने अपनी सेना को आज्ञा दी की शीघ्र जाकर उस शुकर को मार डालो । यही नहीं राजा स्वयं मतवाले हाथी पर सवार हो उद्ध्यान की ओर चल पड़ा । तब राजा बोला की यदि किसी की बगल से यह शुकर निकल जायेगा तो मै उस सिपाही का सर शत्रु की भांति काट डालूँगा । राजा के ऐसे वचन सुनकर वह शुकर जिस भाग में राजा खड़ा था उसी मार्ग से मनुष्यों को विदीर्ण करता हुआ निकल गया ।
राजा अपने हाथी को मारता ही रह गया । राजा लज्जित होकर उस शुकर का पीछा करते हुए सिंह, बाघों से युक्त घोर वन में जा निकला । शुकर से मुठभेड़ हुई और राजा ने अपने बाण से उसे भेद दिया । बाण लगते ही शुकर अपने अधम शरीर को छोड़कर दिव्य गन्धर्व रूप में आ गया और विमान पर चढ़कर स्वर्ग की ओर जाने लगा । गन्धर्व ने राजा से कहा, हे महिपाल ! आपने मुझे शुकर योनी से छुड़ाकर बड़ी कृपा की ।
“मै चित्ररथ नामक गंधर्व हूँ । एक समय जबकि ब्रह्माजी देवताओं के बीच में बैठे हुए मेरा गायन सुन रहे थे, तब मुझसे ताल स्वर की भूल हो जाने से उन्होंने रुष्ट होकर मुझे श्राप दिया था की तू पृथ्वी पर शुकर होगा । जिस समय राजा मंगलसेन तुझे अपने हाथों से मारेंगे तब तू शुकर योनी से मुक्त होगा । सो यह श्राप आज पूरा हुआ। हे राजन ! मै आपके कृत्य से प्रसन्न हुआ । आप भविष्य में महालक्ष्मी व्रत करके सर्वभोम राजा हो जायेंगे, ऐसा मेरा आशीर्वाद है ।”
वह चित्ररथ गन्धर्व राजा मंगलसेन को ऐसा आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गया । राजा भी वहां से अपने नगर के लिए चलने को उद्ध्यत हुआ, त्यों ही उसे एक ब्राह्मिण दिखाई दिया । राजा ने ब्राह्मिण से प्रश्न किया की, हे देव ! आप कौन हैं ? इस पर ब्राह्मिण ने उत्तर दिया, हे राजन ! मै आपके ही राज्य का एक नागरिक हूँ । आप इस समय दुखी दिखाई देते हैं इसलिए कहिये मै आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ।
राजा ने तब ब्राह्मिण से कहा की वह उसके घोड़े को निकट के जलाशय से पानी पिला लावे, ब्राह्मिण ने ऐसा ही किया । वह घोड़े की पीठ पर सवार होकर जलाशय की ओर जाता है । बटुक जलाशय के निकट पहुँच कर देखता है की वहां दिव्य वस्त्र और अलंकार पहने हुए बहुत सी स्त्रियाँ कथा कह रही हैं । तदन्तर वह बटुक भी उन स्त्रियों के पास जाकर अपना परिचय देकर नाना प्रकार के प्रश्न करने लगा ।
हे स्त्रियों ! आप यहाँ भक्ति भाव से क्या कर रही हैं ? इसके करने से क्या फल मिलता है ? इन देवियों ने तरस खाकर उस ब्राह्मिण से कहा- यहाँ महालक्ष्मीजी की पूजा हो रही है । और जो कथा हम कह रही हैं यह उसी व्रत की कथा है । अतः आप एकाग्रचित्त होकर इस कथा को सुने । इस व्रत को करने से हर प्रकार की संपत्ति प्राप्त हो सकती है तथा अपना खोया यश भी प्राप्त हो सकता है , इसमें कोई संदेह न करें ।
इस प्रकार बटुक को उन स्त्रियों ने व्रत का वृतांत कह सुनाया । बटुक ने घोड़े को जल पिलाया और राजा के लिए कमल के पत्ते व जल लेकर वहां से लौट आया । ब्राह्मिण ने लौटकर सारा किस्सा राजा को सुनाया और यही व्रत की कथा राजा से कह सुनाई । महालक्ष्मी का व्रत व पूजन करके राजा अपने ऐश्वर्य का भागी बनकर राजा उस बटुक को साथ लेकर अपनी राजधानी लौट आया ।
सबसे पहले राजा अपने मित्र बटुक के साथ अपनी बड़ी रानी चोलदेवी के महल में जाता है । रानी राजा के हाथ में व्रत का बंधा हुआ डोरा देखकर रुष्ट हो जाती है । वन में यह डोरा किसी अन्य स्त्री ने राजा के हाथ में बंधा है ऐसा विचार कर वह डोरा राजा के हाथ से तोड़कर फेंक देती है । उसी समय राजा की छोटी रानी चिल्लदेवी वहां आ पहुँचती है और उस डोरे को उठा लेती है और पास खड़े बटुक से उस डोरे का रहस्य जान लेती है ।
दुसरे वर्ष जब महालक्ष्मी व्रत का दिन आता है, तब राजा अपने हाथ के डोरे को देखते हैं और चिल्लदेवी के महल में व्रत पूजा आदि का सन्देश पाकर पहुँच जाते हैं । वे इसप्रकार चोलदेवी से नाराज हो जाते हैं और चिल्लदेवी से प्रसन्न हो जाते हैं । पूजन के दिन ही लक्ष्मीजी चोलदेवी रानी के महल में एक वृध्द का रूप धारण करके पहुँचती है, वहां चोलदेवी लक्ष्मीजी का अनादर करती है, तब अप्रसन्न होकर लक्ष्मीजी चोलदेवी को श्राप देती है कि जा तेरा मुख शुकरी के जैसा हो जायेगा।
ज़ब तू अंगिरा ऋषि के यहाँ जाएगी तब वहां कृत्य से अपना स्वरुप प्राप्त करेगी। इसके बाद लक्ष्मीजी रानी चिल्ल्देवी के महल में गई। वहां रानी ने उनका बड़ा आदर किया तो प्रसन्न होकर लक्ष्मीजी ने कहा – “हे रानी, मै तेरे पूजन तथा आदर सत्कार से प्रसन्न हुई हुँ । तू वर मांग ।
” रानी ने कहा – “हे देवी, जो भी तुम्हारे इस व्रत को करे, उसके घर में सदा निवास करो तथा जो भी इस व्रत कथा को पढ़े या श्रवण करे उसकी मनोकामनाएं पूरी किया करो । मै आपसे यही वरदान चाहती हूँ। ” तब लक्ष्मीजी वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गई.।
उस दिन रानी चोलदेवी शूकरी जैसे मुख हो जाने के कारण अपने द्वारपालों से अपमानित होती है। जब रानी अपना मुख दर्पण में देखती है तो पछताती है। फिर वह लक्ष्मीजी के बताये अनुसार अंगिरा ऋषि के कहेनुसार महालक्ष्मी व्रत करती है और अपना खोया रूप प्राप्त करती है। ऋषि के आग्रह से राजा मंगलसेन अपनी बड़ी रानी को ग्रहण करता है।
इसप्रकार राजा अपनी दोनों पत्नियों के साथ बहुत वर्षों तक राज्य करते रहे। वह अपने समय के चक्रवर्ती राजा माने जाने लगे और उन्होंने बटुक ब्राह्मण को भी विशाल राज्य का मंत्री बना दिया। राजा अपनी दोनों पत्नियों के इस व्रत को निरंतर करने के कारण अंत में स्वर्ग लोक गए और आकाश में उन्हें श्रवण नक्षत्र का रूप प्राप्त हुआ । जो भी इस व्रत को करेगा वह इस लोक में समस्त सुख भोगकर अंत में मोक्ष को प्राप्त होगा। अतः तुम भी वत्रासुर दैत्य का नाश करने हेतु इस व्रत को करो, तुम्हारी भी मनोकामना पूरी होगी। इति।
जय माँ महालक्ष्मीजी ।।
Mahalaxmi Vrat Katha
।। दूसरी कथा ।।
प्राचीन समय में एक बार एक गांव में गरीब ब्राह्मण रहता था। वह नियमित रूप से श्री विष्णु का पूजन किया करता था। उसकी पूजा-भक्ति से प्रसन्न होकर उसे भगवान श्री विष्णु ने दर्शन दिए और ब्राह्मण से अपनी मनोकामना मांगने के लिए कहा। ब्राह्मण ने लक्ष्मी जी का निवास अपने घर में होने की इच्छा जाहिर की।
यह सुनकर श्री विष्णु जी ने लक्ष्मीजी की प्राप्ति का मार्ग ब्राह्मण को बता दिया, जिसमें श्री हरि ने बताया कि मंदिर के सामने एक स्त्री आती है जो यहां आकर उपले थापती है। तुम उसे अपने घर आने का आमंत्रण देना और वह स्त्री ही देवी लक्ष्मी है। देवी लक्ष्मी जी के तुम्हारे घर आने के बाद तुम्हारा घर धन और धान्य से भर जाएगा। यह कहकर श्री विष्णु चले गए।
अगले दिन वह सुबह चार बजे ही मंदिर के सामने बैठ गया। लक्ष्मी जी उपले थापने के लिए आईं तो ब्राह्मण ने उनसे अपने घर आने का निवेदन किया। ब्राह्मण की बात सुनकर लक्ष्मी जी समझ गईं कि यह सब विष्णु जी के कहने से हुआ है।
लक्ष्मी जी ने ब्राह्मण से कहा की तुम महालक्ष्मी व्रत करो। 16 दिन तक व्रत करने और सोलहवें दिन रात्रि को चन्द्रमा को अघ्र्य देने से तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा। ब्राह्मण ने देवी के कहे अनुसार व्रत और पूजन किया और देवी को उत्तर दिशा की ओर मुंह करके पुकारा, लक्ष्मी जी ने अपना वचन पूरा किया। उस दिन से यह व्रत इस दिन विधि-विधान से करने से व्यक्ति की मनोकामना पूरी होती है।
Katha Of Mahalaxmi Vrat
।। तीसरी कथा ।।
एक बार महालक्ष्मी का त्योहार आया। हस्तिनापुर में गांधारी ने नगर की सभी स्त्रियों को पूजा का निमंत्रण दिया, परन्तु कुंती से नहीं कहा। गांधारी के 100 पुत्रों ने बहुत सी मिट्टी लाकर एक हाथी बनाया और उसे खूब सजाकर महल में बीचों बीच स्थापित किया।
सभी स्त्रियां पूजा के थाल ले लेकर गांधारी के महल में जाने लगीं। इस पर कुंती बड़ी उदास हो गईं, जब पांडवों ने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि मैं किसकी पूजा करूं? अर्जुन ने कहा मां! तुम पूजा की तैयारी करो मैं जीवित हाथी लाता हूं।अर्जुन इन्द्र के यहां गए और अपनी माता के पूजन हेतु वह ऐरावत को ले आए।
माता ने सप्रेम पूजन किया। सभी ने सुना कि कुती के यहां तो स्वयं इंद्र का ऐरावत हाथी आया है तो सभी उनके महल की ओर दौड़ पड़े और सभी ने पूजन किया। इस व्रत पर सोलह बोल की कहानी सोलह बार कही जाती है और चावल या गेहूं अर्पित किए जाते हैं।
Mahalaxmi Vrat Katha Hindi Pdf