Sanskrit Shlok On Karma

कर्म पर संस्कृत में श्लोक “Sanskrit Shlok On Karma” इस पोस्ट में दिए गए है। साथ में उनका हिंदी में अर्थ ( Sanskrit Slokas On Karma With Meaning In Hindi ) भी दिया गया है।

Sanskrit Shlok On Karma

Sanskrit Shlok On Karma

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुखे मृगाः।

कोई भी काम उद्यम ( मेहनत ) से ही पूरा होता है, बैठे-बैठे हवाई किले बनाने से नहीं अर्थात सिर्फ सोचने भर से नहीं।
ठीक उसी प्रकार सोते हुए शेर के मुंह में हिरण खुद नहीं चला जाता।
Any work is accomplished by hard work, not just by thinking.
In the same way, as the deer does not enter the mouth of the sleeping lion.

कर्मफल यदाचरित कल्याणी शुभ वा यदि वांशुभम
तदवे लभते भद्रे कर्ता कर्मजमातमन:

मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता हैं उसे वैसा ही फल मिलता हैं कर्ता को कर्म अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता हैं।

अतितृष्णा न कर्तव्या तृष्णा नैव परित्यजेते
शनै: शनैश्व भोक्तव्य स्वयं वित्तमुपार्जितम्

अत्यधिक इच्छाएं नहीं करनी चाहिये पर इच्छाओं का सर्वथा त्याग भी नही करना चाहिए अपने कमाए हुए धन का धीरे धीरे उपभोग करना चाहिये।

यस्तु संचरते देशान् यस्तु सेवते पंडितान
तस्य विस्तारित बुद्धिस्टेलेबिंदुरिवंभासि

भिन्न देशों में यात्रा करने वाले और विदद्वानो के साथ संबंध रखने वाले व्यक्ति की बुद्धि उसी तरह बढ़ती हैं जैसे तेल की एक बून्द पानी मे फैलती हैं।

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेंद्रिय
सर्वभुआत्माभुआत्मा कुर्वन्नपि न लीपलयते

जो भक्तिभाव से कर्म करता हैं जो विशुद्ध आत्मा हैं
और अपने मन तथा इंद्रियों को वश में रखता हैं वह सभी को प्रिय होता हैं और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं
ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कर्म नहीं बंधता हैं

कर्मणो ह्वपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विक्रमण:
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:

कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये क्योंकि कर्म की गति गहन हैं।

प्रबल: कर्मसिद्धांत:

कर्म का सिद्धान्त बहुत प्रबल हैं

तत्कर्म यत्र बंधाय सा विद्या सा विमुक्तये
आयासायापर कर्म विद्यानय शिल्पनैपुणम्

कर्म वही हैं जो बंधन का कारण न हो और विद्या भी वही हैं जो मुक्ति की साधिका हो इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अन्य विधाय कला कौशल मात्र ही हैं।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मे फलेषु कदाचन
मा कर्मफलहेतुभुरमा ते सन्दगोअस्तवकर्मणि

कर्म करने में ही तेरा अधिकार हैं न कि फल में
कर्मफल हेतु भी मत बन तथा कर्म न करने में
भी तेरी अशक्ति न हो।

Sanskrit Shlok On Karma

मा कुरु धनजनयौवनगर्व हरति निमेषात्काल: सर्वम्

धन, जन और यौवन पर घमंड मत करो काल इन्हें पल में छीन लेता हैं।

सन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगत:
योगयुक्तो मुनिब्रह्म नचिरेणाधीगच्छति

भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मो का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता परन्तु भक्ति में
लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को
प्राप्त कर लेता हैं।

Sanskrit Quotes On Karma

न कृतत्व न कर्मणि लोकस्य सृजति प्रभु
न कर्मफलसयोग स्वभावस्तु पर्वतरते

परमेश्वर न तो मनुष्यो के कर्तव्य का, न कर्मो का और न कर्मफल के सयोंग का ही सर्जन करता है किन्तु ये सब स्वभाव से ही प्रवर्तित हो रहा हैं।

श्रयान् स्वधर्मो विगुण परधर्मात् स्वनुष्टितात्
स्वधर्म निधन श्रेय: परधर्मो भयावह:

Sanskrit Shlok On Karma

अपने नियत्कर्मो को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मो को भलीभांति करने से श्रेश्कर हैं स्वीय कर्मो को करते हुए मरना पराये कर्मो में प्रवत होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर हैं क्योंकि अन्य किसी मार्ग का अनुसरण भयावह होता हैं।

सन्यास: कर्मयोगश्व नि: श्रेयसकरावुभौ
तयोस्तु कर्म सन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते

मुक्ति के लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म
दोनों ही उत्तम हैं किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ हैं।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:

कोई भी काम मेहनत से ही पूरा होता हैं बैठे बैठे
हवाई किले बनाने से नहीं अर्थात सिर्फ सोचने भर
से नहीं ठीक उसी प्रकार सोते हुए शेर के मुँह में
हिरण खुद नहीं चला जाता।

Sanskrit Shlok On Karma

न कश्चित कस्यचित मित्रम् न कश्चित कस्यचितपुरु
व्यवहारेंण जायते मित्राणि रिपव्यस्तथा
।।

अध चित्त समाधातु न शक्रोषि मयी स्थिरम्
अभ्यासयोगने ततो मामिच्छापतु धनश्चय

यद्त्सद्स्यते लोके सर्व तत्कर्मसंभवम्
सर्वा कर्मानुसारण जंतुभौगांभुक्ति वै

Sanskrit Quotes On Karma

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु: खदा:
आग मापायिनोनित्यास्तासिततिक्षस्व भारत

वाणी रसवती यस्य यस्य श्रमवति क्रिया
लक्ष्मी: दानवती यस्य सफलम् तस्य जिवितम्

विपदी धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसी वाक्पटुता युधि विक्रम:
यशसि चाभी रुचिवैर्यसन्न श्रुतौ प्रकृतिसिद्धिमिद हि महतमनाम्

Sanskrit Shlok On Karma

दुर्जन: परिहर्तव्यों विद्यालकृतो सन
मणिना भूषितो सर्प: किमसो न भयंकर:

दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी हो अर्थात वह विद्यावानभि हो तो भी उसका परित्याग कर देना चाहिए जैसे मणि से सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता।

श्वेतदेहाय रुद्राय श्वेतगंगाधराय च।
श्वेतभस्माङ्गरागाय श्वेतस्वरूपिणे नमः।।

श्वेत देह वाले, श्वेत गंगा को मस्तक पर धारण करने वाले,
श्वेत भस्म को शरीर पर धारण करने वाले,
श्वेत स्वरूप भगवान् शिव को नमन करता हूँ।
Those with white bodies, who wear the white ganges on the forehead, those who wear the white ash on the body, bow to the white form lord shiva .

मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्रणनेत्रे।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायु
श्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥

मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं,
मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं,
मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं,
मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
I am not mind, nor intellect, nor ego, nor the reflections of the inner self. I am not the five senses. I am beyond that. I am not the ether, nor the earth, nor the fire, nor the wind (i.e. The five elements). I am indeed, that eternal knowing and bliss, shiva, love and pure consciousness.

Sanskrit Quotes On Karma

मंदाकिनी सलिल चन्दन चर्चिताय
नन्दी श्वर प्रमथ नाथ महेश्वराय।
मन्दार पुष्प बहुपुष्प सु पूजिताय
तस्मै मकाराय नमः शिवाय॥

जो शिव आकाशगामिनी मन्दाकिनी के पवित्र जल से संयुक्त तथा चन्दन से सुशोभित हैं,
और नन्दीश्वर तथा प्रमथनाथ आदि गण विशेषों एवं षट् सम्पत्तियों से ऐश्वर्यशाली हैं,
जो मन्दार–पारिजात आदि अनेक पवित्र पुष्पों द्वारा पूजित हैं,
ऐसे उस मकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
I Bow To Lord Mahesvara, Who Is Embodied As Makaara (Letter Ma), Whose Body Is Anointed With Holy Waters From The River Ganges And Sandal Paste, Who Is The Sovereign King Of The Pramatha Ganas And Who Is Adorned With Innumerable Divine Flowers Such As Mandara.

न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥

मैं न तो जप जानता हूँ, न तप और न ही पूजा।
हे शम्भो (शिव), मैं तो सदा सर्वदा आपको ही नमन करता हूँ।
हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दु:ख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:खों से रक्षा कीजिए।
हे शम्भो, मैं आपको नमस्कार करता हूं।
I do not knowhow to perform yoga, japa or puja. I always at all times only bow down to you, o shambhu (shiva), please protect me from the sorrows of birth and old age, as well as from the sins which lead to sufferings, please protect me o lord from afflictions; protect me o my lord shambhu.

करचरण कृतं वा क्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।
विहितम विहितं वा सर्वमे तत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥

हे भगवान शिव, कृपया मेरे हस्त, चरण, वाणी, शरीर या
अन्य किसी भी शरीरके कर्म करने वाले अंग से या
कान, नेत्र या मन से हुए सभी अपराधको क्षमा करें।
हे महादेव, शम्भो! आपके करुणाके सागर हैं, आपकी जय हो।

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं
रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् ।
पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं
विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥

चाँदी के पर्वत के समान जिनकी श्वेत चमक है, जो सुन्दर चन्द्रमा को आभूषण के रूप में धारण करते हैं,
रत्नमय अलङ्कारों से जिनका शरीर उज्ज्वल है, जिनके हाथों में परशु, मृग, वर और अभय मुद्रा है, जो प्रसन्न है,
कमल के फूल के आसन पर विराजमान है, देवतागण जिनके चारों ओर खड़े होकर स्तुति करते हैं, जो बाघ की खाल पहनते हैं, जो विश्वके आदि जगत्की उत्पत्ति के बीज और समस्त भय को हरनेवाले हैं, जिनके पाँच मुख और तीन नेत्र हैं, उन महेश्वरका प्रतिदिन ध्यान करे।
like a silver mountain, which has white glow. Those who wear the beautifull moon as ornaments, whose body is bright with gemstone decking, whose hands are the halberd, antelope, var and abhaya mudra, he who is happy, sitting on a lotus flower mat, gods around whom they stand and praise, those who wear tiger skin, is the originator of the universe and annihilates all fears , those who have five faces and three eyes, we meditate on such maheshwar daily.

प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं
गङ्गाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम् ।
खट्वाङ्गशूलवरदाभयहस्तमीशं
संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ।।

संसार के भय को नष्ट करने वाले, देवेश, गङ्गाधर, वृषभवाहन, पार्वतीपति, हाथमें खट्वाङ्ग एवं त्रिशूल लिये और संसाररूपी रोग का नाश करने के लिये अद्वितीय औषध-स्वरूप, अभय एवं वरद मुद्रायुक्त हस्त वाले भगवान् शिव का मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ।
God shiva, the one who destroys the fear of the world, devesh, gangadhar, vrishabavahan, parvatipati, having khatwang and trishul in his hand and unique form of medicine to eradicate worldly diseases, abhay and varad stamped hand the ones i remember in the morning.

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मन्त्रो न तीर्थं न वेदो न यज्ञः
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानन्द रूप: शिवोऽहं शिवोऽहम्

न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…
I am not virtuous, neither sin, nor happiness nor sorrow, nor mantra, nor pilgrimage, nor Vedas nor yajna, I am neither food, nor will I eat, nor am I to eat, I am conscious form, am bliss, I am Shiva, I am Shiva…

नास्ति मातृसमा छाय
नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं
नास्ति मातृसमा प्रपा॥

माता के समान कोई छाया नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। माता के समान इस विश्व में कोई जीवनदाता नहीं॥
There is no shade like a mother, no resort-like a mother, no security like a mother, no other ever-giving fountain of life!

Sanskrit Shlok On Karma

आपदामापन्तीनां हितोऽप्यायाति हेतुताम् ।
मातृजङ्घा हि वत्सस्य स्तम्भीभवति बन्धने ॥

जब विपत्तियां आने को होती हैं, तो हितकारी भी उनमें कारण बन जाता है।
बछड़े को बांधने मे माँ की जांघ ही खम्भे का काम करती है।
When calamities befall, even a wellwisher becomes a cause of them.
It is the leg of the mother that serves as the pillar for tying the calf.

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।
Mother and motherland are more than heaven.

सर्वतीर्थमयी  माता  सर्वदेवमयः  पिता 
मातरं पितरं तस्मात्  सर्वयत्नेन पूजयेत् 

मनुष्य के लिये उसकी माता सभी तीर्थों के समान तथा पिता सभी देवताओं के समान पूजनीय होते है। अतः उसका यह परम् कर्तव्य है कि वह् उनका अच्छे से आदर और सेवा करे।
To a person his mother is an object of veneration and his  father is like all the Gods combined. It is, therefore, his sacred duty that he should revere and serve both of them with utmost care and attention.

आदाय मांसमखिलं स्तनवर्जमंगे
मां मुञ्च वागुरिक याहि कुरु प्रसादम् ।
अद्यापि शष्पकवलग्रहणानभिज्ञः
मद्वर्त्मचञ्चलदृशः शिशवो मदीयाः ।।

हे शिकारी! तुम मेरे शरीर के प्रत्येक भाग को काटकर अलग कर दो। लेकिन,बस मेरे दो स्तनों को छोड़ दो। क्योंकि, मेरा छोटा बच्चा जिसने अभी घास खाना शुरू नहीं किया है। वे बड़ी आकुलता से मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा। अगर मैं उसे दूध नहीं पिलाऊँगी तो वह निश्चित रूप से मर जाएगा । तो कृपया मेरे स्तनों को छोड़ दो।
Hey hunter! You cut and separate each part of my body. But, just leave my two breasts. Because, my little kid who has not started eating grass yet. They must have been waiting for me very eagerly. If I don’t feed him, he will definitely die. So please leave my breasts.

Sanskrit Shlok On Karma

तावत्प्रीति भवेत् लोके यावद् दानं प्रदीयते ।
वत्स: क्षीरक्षयं दृष्ट्वा परित्यजति मातरम् ।।

लोगों का प्रेम तभी तक रहता है जब तक उनको कुछ मिलता रहता है।
मां का दूध सूख जाने के बाद बछड़ा तक उसका साथ छोड़ देता है।
People love only as long as they get something. After the mother’s milk dries the calf leaves the mother with it.

विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर् विपरीतमेतद्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥

दुर्जन की विद्या विवाद के लिये, धन उन्माद के लिये,
और शक्ति दूसरों का दमन करने के लिये होती है। 
सज्जन इसी को ज्ञान, दान, और दूसरों के रक्षण के लिये उपयोग करते हैं।
The mischievous use their education for conflict, money for intoxication, and power for oppressing others. Honest ones use it for knowledge, charity, and protecting others, respectively.

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे
हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार॥

रात खत्म होकर दिन आएगा, सूरज फिर उगेगा, कमल फिर खिलेगा- ऐसा कमल में बन्द भँवरा सोच ही रहा था, और हाथी ने कमल को उखाड़ फेंका।
The night will pass, the dawn will arrive, the sun will rise, and the lotus shall bloom again, thought the bee stuck in the lotus bud, oh, but, an elephant uprooted the lotus!

सुसूक्ष्मेणापि रंध्रेण प्रविश्याभ्यंतरं रिपु:
नाशयेत् च शनै: पश्चात् प्लवं सलिलपूरवत्

नाव में पानी पतले छेद से भीतर आने लगता है और भर कर उसे डूबा देता है, उसी तरह शत्रु को घुसने का छोटा रास्ता या कोई भेद मिल जाए तो उसी से भीतर आ कर वह कबाड़ कर ही देता है।

महाजनस्य संपर्क: कस्य न उन्नतिकारक:।
मद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम् ।।

महाजनों गुरुओं के संपर्क से किस की उन्नति नहीं होती। कमल के पत्ते पर पड़ी पानी की बूंद मोती की तरह चमकती है।

निर्विषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा।
विषं भवतु मा वास्तु फटाटोपो भयंकरः।

सांप जहरीला न हो पर फुफकारता और फन उठाता रहे तो लोग इतने से ही डर कर भाग जाते हैं। वह इतना भी न करे तो लोग उसकी रीढ़ को जूतों से कुचल कर तोड़ दें।

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।

धर्म का सार तत्व यह है कि जो आप को बुरा लगता है वह काम आप दूसरों के लिए भी न करें ।

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।

धर्म है क्या? धर्म है दूसरों की भलाई। यही पुण्य है। और अधर्म क्या है? यह है दूसरों को पीड़ा पहुंचाना। यही पाप है।

Sanskrit Shlok On Karma

मानात् वा यदि वा लोभात् क्रोधात् वा यदि वा भयात्।
यो न्यायं अन्यथा ब्रूते स याति नरकं नरः।

कहा गया है कि यदि कोई अहंकार के कारण, लोभ से, क्रोध से या डर से गलत फैसला करता है तो उसे नरक को जाना पड़ता है।

अदेशकालज्ञमनायतिक्षमं यदप्रियं लाघवकारि चात्मनः।
यच्चाब्रवीत् कारणवर्जितं वचो, न तद्भच: स्यात् विषमेव तद्भच:।

यदि कोई आदमी कोई बात किसी ऐसी जगह कहता है जहां वह बात नहीं कहीं जानी चाहिए, या ऐसे समय पर कहता है जब वह बात नहीं कही जानी चाहिए, कोई ऐसी बात कहता है जो अशुभ है, या किसी को प्रिय नहीं लगती, या जिससे उसका ही ओछापन प्रकट होता है, या जिसे कहने का कोई कारण ही नहीं है, तो वह बात बात नहीं रहती, उसे विष समझना चाहिए।

सत्यं अपि तत् न वाच्यं यत् उक्तं असुखावहं भवति।

यदि बात सच हो पर उसे सुनने पर किसी को कष्ट होता हो तो उसे नहीं कहना चाहिए ।

न गृहं गृहमित्याहुः गृहणी गृहमुच्यते।
गृहं हि गृहिणीहीनं अरण्यं सदृशं मतम्।।

घर तो गृहणी (घरवाली) के कारण ही घर कहलाता है। बिन गृहणी तो घर जंगल के समान होता है।

दारिद्रय रोग दुःखानि बंधन व्यसनानि च।
आत्मापराध वृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।।

दरिद्रता , रोग, दुख, बंधन और विपदाएं तो अपराध रूपी वृक्ष के फल हैं। इन फलों का उपभोग मनुष्य को करना ही पड़ता है।

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।।

कहते हैं कि कुल की भलाई के लिए की किसी एक को छोड़ना पड़े तो उसे छोड़ देना चाहिए। गांव की भलाई के लिए यदि किसी एक परिवार का नुकसान हो रहा हो तो उसे सह लेना चाहिए। जनपद के ऊपर आफत आ जाए और वह किसी एक गांव के नुकसान से टल सकती हो तो उसे भी झेल लेना चाहिए। पर अगर खतरा अपने ऊपर आ पड़े तो सारी दुनिया छोड़ देनी चाहिए ।

Sanskrit Shlok On Karma

नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता॥

सिंह को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई अभिषेक किया जाता है, न कोई संस्कार। अपने गुण और पराक्रम से वह खुद ही मृगेंद्रपद प्राप्त करता है।

पश्य कर्म वशात्प्राप्तं भोज्यकालेऽपि भोजनम् ।
हस्तोद्यम विना वक्त्रं प्रविशेत न कथंचन ।।

भोजन थाली में परोस कर सामने रखा हो पर जब तक उसे उठा कर मुंह में नहीं डालोगे , वह अपने आप मुंह में तो चला नहीं जाएगा।

आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥

आहार, निद्रा, भय और मैथुन– ये तो इन्सान और पशु में समान है। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है।

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते॥

धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं।

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥

आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ? !! अथार्त जीवन में इंसान को कुछ प्राप्त करना है तो उसे सबसे पहले आलस वाली प्रवृति का त्याग करना होगा।

विवादो धनसम्बन्धो याचनं चातिभाषणम् ।
आदानमग्रतः स्थानं मैत्रीभङ्गस्य हेतवः॥

वाद-विवाद, धन के लिये सम्बन्ध बनाना, माँगना, अधिक बोलना, ऋण लेना, आगे निकलने की चाह रखना – यह सब मित्रता के टूटने में कारण बनते हैं।

यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः । 
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥

जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषय परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है।

उपदेशोऽहि मूर्खाणां प्रकोपाय न शांतये।
पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम्॥

Sanskrit Slokas On Karma With Meaning In Hindi:
मूर्खों को सलाह देने पर, उन्हें गुस्सा आता है यह उन्हें शांत नहीं करता है। जिस प्रकार सांप को दूध पिलाने पर उसका जहर बढ़ता है।

न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु: ।
व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा ।।

न कोई किसी का मित्र होता है, न कोई किसी का शत्रु। व्यवहार से ही मित्र या शत्रु बनते हैं।

Sanskrit Shlok On Karma

उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्।
मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥ 

उद्यम से दरिद्रता तथा जप से पाप दूर होता है। मौन रहने से कलह और जागते रहने से भय नहीं होता।

आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः।
परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति।

इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता ? परंतु, जो परोपकार के लिए जीता है, वही सच्चा जीना है।

शनैः पन्थाः शनैः कन्था शनैः पर्वतलङ्घनम्।
शनैर्विद्या शनैर्वित्तं पञ्चैतनि शनैः शनैः॥

Sanskrit Slokas On Karma With Meaning In Hindi:
राह धीरे धीरे कटती है, कपड़ा धीरे धीरे बुनता है, पर्वत धीरे धीरे चढा जाता है, विद्या और धन भी धीरे-धीरे प्राप्त होते हैं, ये पाँचों धीरे धीरे ही होते हैं।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥

जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।

आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा । 
निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥

चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है।

अरावप्युचितं कार्यमातिथ्यं गृहमागते।
छेत्तुः पार्श्वगताच्छायां नोपसंहरते द्रुमः॥

Sanskrit Slokas On Karma With Meaning In Hindi:
शत्रु भी यदि अपने घर पर आ जाए तो उसका भी उचित आतिथ्य सत्कार करना चाहिए, जैसे वृक्ष अपने काटने वाले से भी अपनी छाया को कभी नहीं हटाता है।

न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥

कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है।

यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी।
विभवे यस्य सन्तुष्टिस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ॥ 

जिसका पुत्र वशीभूत हो, पत्नी वेदों के मार्ग पर चलने वाली हो और जो वैभव से सन्तुष्ट हो, उसके लिए यहीं स्वर्ग है।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

Sanskrit Slokas On Karma With Meaning In Hindi :
हे भारत जबजब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तबतब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।। साधु पुरुषों के रक्षण , दुष्कृत्य करने वालों के नाश तथा धर्म संस्थापना के लिये मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ।।

काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन तु मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥

बुद्धिमान लोगों का समय काव्य और शास्त्र का विनोद करने में व्यतीत होता है, जब कि मूर्खों का समय व्यसन, नींद व कलह में व्यतीत होता है।

विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम् ।
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता ॥

विद्वत्व, दक्षता, शील, संक्रांति, अनुशीलन, सचेतत्व, और प्रसन्नता – ये सात शिक्षक के गुण हैं।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः 
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति 

मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता।

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